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कुछ तुम्हारी,
कुछ मेरी, इधर उधर की, ढेर सारी
चाय की वह दो
प्यालियाँ भी हमारे खिस्से सुनते-सुनते खाली हो जाती हैं.
वैसे ये तो
हर रोज़ की बात हैं, हमेशा से यहीं होता आ रहा हैं,
पर अब कुछ कमी
सी लगती हैं, कुछ तो हैं जो अधूरा हैं
तुम पहले भी
ज्यादा बोलती थी, अब भी बोलती हो,
पर कुछ कहती
नहीं हो, कुछ तो हैं जो कहती नहीं हो.
तुम अब भी मुस्कुराती
बहुत हो, पर हस्ती नहीं हो.
हँसी अगर आ
भी जाये, तो होटों को छू कर चली जाती हैं,
कभी आँखो तक
नहीं पहुँचती.
मेरी एक सलाह
मानो, तो कभी खुल के बात करना,
मुझसे न कर
सको तो, तो खुद से ही करना।
जरूरी हैं.
तुम शायद भीड़
में उन बातों को भुला देना चाहती हो,
पर अकेलेपन
में वहीँ बातें फिर बहार आना चाहती होंगी.
कभी कभी भीड़
से ज्यादा अकेलेपन सच्चा साथी होता हैं.
अकेलेपन से
दोस्ती कर के देखो, उन् सारी बातों को बहार निकाल के देखों
शायद तुम्हारी
पुरनी वाली बेबाक हंसी भी फिर बहार आजाए.
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